भारत की पहली महिला जिसकी कोई जाति, कोई धर्म नहीं

भारत की पहली महिला जिसकी कोई जाति, कोई धर्म नहीं

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भारतीय समाज में कहा जाता है कि जाति कभी नहीं जाती. इस धारणा को तोड़ने की औपचारिक तौर पर शुरुआत हुई है देश के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से, जिसे सामाजिक परिवर्तन की पहल करने के लिए जाना जाता है. वेल्लूर जिले के तिरुपत्तूर की वकील स्नेहा ने नौ साल के लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार इस बात का प्रमाण-पत्र सरकार से हासिल करने में सफलता हासिल कर ली है कि उनकी न तो कोई जाति है, और न ही कोई धर्म.

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स्नेहा को दिया गया प्रमाण पत्र | फेसबुक

जाति-बंधनों से जकड़े इस समाज में अपने आपको डिकास्ट और नास्तिक कहने वाले कई लोग मिल जाते हैं, लेकिन सरकारी तौर पर उन्हें ऐसी कोई मान्यता नहीं मिलती. उन्हें कई तरह के आवेदन या दस्तावेज में अपनी जाति और धर्म लिखना ही पड़ता है.

जाति के बिना नहीं चल पाता काम

जाति का महत्व देश में इतना ज्यादा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तक को अपनी जाति ही नहीं, गोत्र तक का ऐलान करना पड़ गया जबकि उनकी दादी ब्राह्मण थी, दादा पारसी थे और माता ईसाई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर अपनी नीची जाति या पिछड़ी मां की संतान होने की बात करते चुनावी सभाओं में करते रहते हैं.

तमिलनाडु में नाम के साथ जाति न लिखने का चलन आम है, लेकिन इसके बावजूद वहां जातिवाद खत्म नहीं हो सका. राजनारायण, चंद्रशेखर, कृष्णकांत जैसे तमाम उत्तर भारत के समाजवादियों ने भी अपने नाम से जाति हटाई, लेकिन वो जाति से मुक्त नहीं हो सके. जयप्रकाश आंदोलन के समय भी हजारों युवाओं ने अपना जातिसूचक सरनेम हटा लिया था, लेकिन वो पहल भी सीमित ही साबित हुई. ऐसे में स्नेहा की पहल काफी साहसिक मानी जा सकती है.

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दबावों के आगे नहीं झुकीं स्नेहा

स्नेहा के माता-पिता पर भी हमेशा ये दबाव डाला जाता था कि वे अपनी बेटियों स्नेहा, मुमताज और जेनिफर के आवेदनों के कॉलम में उस जाति और धर्म का जिक्र करें, जिससे उनके पूर्वजों का वास्ता रहा होगा, लेकिन स्नेहा और उनके माता-पिता अपने हठ पर अड़े रह

जातिविहीन-धर्मविहीन होने का प्रमाण-पत्र सरकार की तरफ से जारी होना बहुत बड़ी संख्या में लोगों को बेचैन कर सकता है, क्योंकि हमारे समाज में जब भी हम किसी नए व्यक्ति से मिलते हैं तो जब तक उसकी जाति या धर्म न जान लें, तब तक एक तरह की बेचैनी महसूस करते हैं, और ऐसा लगता है, जैसे सामने वाला अपनी पहचान छिपा रहा हो. बस और ट्रेन तक में हम ऐसा होता देख सकते हैं, जहां हम एक दूसरे से महज कुछ घंटों के लिए मिलते हैं.

भारतीय होना ही है स्नेहा की पहचान

35 साल की स्नेहा ने अपने परिवार के जाति और धर्म को नकारने की सोच को सरकारी तौर पर प्रमाणित कराने की जंग 2010 से शुरू की थी. उनका आवेदन यह कहकर खारिज कर दिया जाता था कि इस तरह का प्रमाण-पत्र जारी नहीं किया जाता. उनसे यह भी कहा जाता था कि वे इसके बजाय, अपने पूर्वजों की जाति और धर्म बताएं और उसका प्रमाण-पत्र लें जो कि उनके लिए कई तरह से फायदेमंद भी हो सकता था.

पिछले साल उन्होंने फिर से आवेदन किया और अधिकारियों के सामने मजबूती से अपना पक्ष रखा और बताया कि न तो उन्होंने कभी अपनी कोई जाति मानी, न धर्म माना और न ही इनके आधार पर कभी किसी योजना का लाभ लिया. इसके बाद अधिकारी निरुत्तर हो गए.

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कितना धर्मनिरपेक्ष है हमारा देश

कहने के लिए तो हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन धर्मनिरपेक्षता हर जगह देखने को नहीं मिलती. स्कूलों में सुबह होने वाली ज्यादातर प्रार्थनाएं अनिवार्य रूप से बच्चों को धर्म के प्रति आस्था रखने के लिए बाध्य करती प्रतीत होती हैं. इसके अलावा, सरकारी इमारतों या निर्माण के समय भी जो भूमि-पूजन या शिलान्यास जैसे काम होते हैं, उनमें पूजा-पाठ कराने के लिए ब्राह्मणों की मौजूदगी तकरीबन अनिवार्य रहती है.

राजस्थान में तो भाजपा नेता वसुंधरा राजे ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में राष्ट्र रक्षा के लिए बाकायदा 21 ब्राह्मणों को बुलाकर यज्ञ कराया था. देशभर के स्कूल-कॉलेजों में सरस्वती पूजा होती है. उत्तर भारतीय पुलिस थानों में बजरंग बली के मंदिर अक्सर मिल जाते हैं.

इसरो जैसे संगठन तक रॉकेट या यान प्रक्षेपण के पहले बाकायदा ब्राह्मणी रीति-रिवाज से पूजा-पाठ कराते हैं. वायुसेना में भी जब किसी विमान को शामिल किया जाता है तो ब्राह्मणों को किस तरह से पूजा-पाठ करने को बुलाया जाता है, इसकी तस्वीरें अखबारों में शान से छपती रहती हैं.

तीनों बेटियों को भी किया जाति-धर्म से मुक्त

सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए स्नेहा और पार्थिव राजा ने अपनी बेटियों के नाम भी दो-दो धर्मों के मेल से रखे हैं. उनकी बेटियों के नाम अधिराय नसरीन, आदिला इरेने और आरिफा जैसी रखे गए हैं.

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स्नेहा अधिकारी से प्रमाण पत्र हासिल करते हुए | फेसबुक

हालांकि जाति और धर्ममुक्त समाज बनाने की जंग उनके लिए इतनी आसान आगे भी नहीं रहने वाली. अक्टूबर 2016 में वृंदावन में बालेंदू स्वामी को धर्माचार्यों के दबाव के कारण नास्तिक सम्मेलन करने तक से रोक दिया गया था और फिर उन्हें देश तक छोड़ना पड़ गया था.

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स्नेहा के पूर्वजों की जाति जानने की कोशिशें जारी

स्नेहा और उनके परिवार को भी जाति-धर्म से मुक्त होने का सरकारी तौर पर ऐलान करने के बाद भी इस सवाल से लगातार जूझना पड़ेगा कि ठीक है, आप जाति-धर्म नहीं मानते, लेकिन वैसे आपकी जाति है क्या? उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति के मन में उनके पूर्वजों की जाति या उनका धर्म जानने की उत्कंठा इतनी जल्दी खत्म नहीं होने वाली. इंटरनेट पर लगातार सर्च किया जा रहा है कि स्नेहा के पूर्वजों की जाति का पता लग जाए, ताकि उसके बाद उनके इस फैसले की व्याख्या की जा सके. अब देखने वाली बात यह है कि कब तक स्नेहा की ‘जाति’ छिपी रहती है.

साभार – द प्रिंट, बीबीसी

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